BIG NEWS: वन नेशन, वन इलेक्शन से देश को होंगे कई फायदे लेकिन विपक्ष क्यों कर रहा है इससे इनकार, पढें खबर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार एक 'देश राष्ट्र, एक चुनाव' (वन नेशन, वन इलेक्शन) के मुद्दे पर सभी दलों को साथ लाने के प्रयास में जुटे हैं. आम चुनाव के बाद यह मुद्दा नई सरकार की प्राथमिकता में शामिल है. वहीं कई राजनीतिक दल एक राष्ट्र, एक चुनाव के मुद्दे को देश के विकास के लिए अच्छा बता रहे हैं तो कई इसे लोकतंत्र के लिए खतरनाक बता रहे हैं.
इसी मसले पर संसद में वन नेशन, वन इलेक्शन (एक देश, एक चुनाव) पर सर्वदलीय बैठक हो रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसकी अध्यक्षता कर रहे हैं. टीएमसी अध्यक्ष ममता बनर्जी, बसपा सुप्रीमो मायावती, आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस मीटिंग में शामिल होने से इनकार कर दिया है. वहीं, तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव बैठक में व्यक्तिगत कारणों से शामिल नहीं होंगे. YSR-BJD-TRS जैसी पार्टियां इसमें हिस्सा ले रही हैं. बैठक में एक देश, एक चुनाव के अलावा भी कई मुद्दों पर चर्चा होनी है
संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने बताए थे इस फॉर्मूले के फायदे-
ऐसे में सबसे पहले जान लेते हैं कि इस फॉर्मूले से देश के लिए किन फायदों की बात की जाती है. पिछले साल संसद की स्टैंडिग कमेटी ने इस मुद्दे पर एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें इसके ये फायदे बताए गए थे
अलग-अलग चुनाव कराने से आने वाले खर्च में कमी आ जाएगी.
चुनावों के दौरान लगी रहने वाली आचार संहिता के चलते विकास से जुड़े कई कामों को लंबे वक्त के लिए रोक दिया जाता है, इससे जनता को निजात मिलेगी.
बार-बार चुनावों के चलते अच्छे-खासे वक्त के लिए नागरिकों का सामान्य जीवन प्रभावित रहता है. इससे जनता को निजात मिलेगी
इसके अलावा चुनावों में प्रयोग होने वाली सरकारी मशीनरी और सुरक्षा बलों को सदस्यों को भी अन्य जरूरी कार्यों के लिए प्रयोग किया जा सकेगा
पिछले साल चुनावी खर्च और संसाधनों की बचत के बारे में केंद्र सरकार की ओर से कहा गया था कि ऐसा करने से देश को करीब 4,500 करोड़ रुपये की बचत होने का अनुमान है
ज्यादा राजनीतिक स्थिरता के साथ काम करेंगी सरकारें-
राजनीतिक जानकार यह मानते हैं कि पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने से एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि इससे राजनीतिक स्थिरता आएगी. दरअसल अभी अगर किसी राज्य में सरकार समय से पहले गिर जाती है या वहां पर किसी पार्टी को चुनाव के बाद बहुमत नहीं मिल पाता तो ऐसे में चुनाव आयोग को फिर से चुनाव कराने होते हैं, लेकिन अगर एक साथ चुनाव होंगे तो एक तय समय के बाद ही उस राज्य में चुनाव कराए जाएंगे. इससे सामान्य जनजीवन और स्टेट मशीनरी दोनों को ही बार-बार परेशान नहीं होना पड़ेगा
ढाई-ढाई साल पर दो बार कराए जा सकते हैं चुनाव-
एक सुझाव यह भी दिया जा रहा है कि ढाई-ढाई साल में दो बार चुनाव कराए जाएं. एक बार देश के आधे राज्यों में केंद्र के साथ और एक बार बाकी बचे आधे राज्यों के. ऐसा करने के बाद अगर किसी राज्य में चुनाव के बाद किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिले या सरकार कुछ दिन चलने के बाद गिर जाए तो आगे ढाई साल बाद आने वाले चुनावों में अन्य राज्यों के चुनावों के साथ उस राज्य के चुनाव भी करा लिए जाएं. इस तरीके को ध्यान में रखते हुए विधि आयोग ने 1999 में अपनी 117वीं रिपोर्ट में राजनीतिक स्थिरता को आधार बनाकर दोनों ही चुनावों को एक साथ कराने की सिफारिश की थी
बढ़ सकती है चुनावों में लोगों की भागीदारी-
इस बारे में एक बात यह भी कही जा रही है कि कई बार चुनाव होने के चलते अपने मूल निवास से दूर रहने वाले लोग बार-बार वोट डालने के लिए नहीं आते. लेकिन अगर पांच साल में केवल एक बार चुनाव होगा तो लोग इसे ज्यादा महत्व देंगे. ऐसे में राजनीतिक जानकारों ने राज्य विधानसभा और केंद्र दोनों ही चुनावों में लोगों की भागीदारी बढ़ने की उम्मीद भी जताई है
एक राष्ट्र, एक चुनाव का मुद्दा क्यों करता है विपक्ष को परेशान-
एक राष्ट्र, एक चुनाव का विरोध करते हुए कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने प्रश्न किया था, क्या आप लोकतंत्र को रौंदने वाले हैं? क्या आप लोकसभा और राज्यसभा का कार्यकाल घटाने वाले हैं? दरअसल ये हैं वो मुख्य बातें जो एक राष्ट्र, एक चुनाव के फॉर्मूले में विपक्ष को परेशान करती हैं
एक राष्ट्र, एक चुनाव के लागू होने पर कुछ ऐसे प्रावधान भी किए जाएंगे जो कि चुनी हुई सरकार को पांच साल शासन करने का हक देंगे. ऐसे में कार्यकाल के बीच उन्हें गिराया नहीं जा सकेगा. यह बात विपक्ष को परेशान करने वाली है
अगर लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव एक साथ होते हैं तो चुनावों के दौरान जनता राष्ट्रीय मुद्दों को वरीयता देगी और उन्हीं के आधार पर वोट करेगी. ऐसे में राज्य के महत्व के मुद्दे दब जाएंगे
एक साथ चुनाव कराने पर सारे राज्यों के चुनावों को केंद्र के चुनावों के साथ लाना होगा. ऐसे में कुछ राज्यों में सरकारों को उनका कार्यकाल करने से पहले ही भंग कर दिया जाएगा. इस प्रक्रिया को विपक्ष अलोकतांत्रिक मानता है. इतना ही नहीं इसके चलते पांच साल के कार्यकाल में दिखने वाला उनके किए कार्यों का प्रभाव भी नहीं दिखेगा और जनता फिर से उनका चुनाव नहीं करेगी
कब बंद हो गए देश में विधानसभा के साथ होने वाले लोकसभा चुनाव-
भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कांग्रेस के अंदर अपना अलग धड़ा बना चुकी थीं. शक्ति केंद्र को लेकर उनकी सिंडिकेट के नेताओं के साथ रस्साकशी चल रही थी. कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग के साथ इंदिरा मजबूत बनी हुई थीं
ऐसे में अगले आम चुनाव 1972 में होने थे लेकिन इंदिरा गांधी ने 1971 में ही आम चुनाव करवाना तय किया और अपना कार्यकाल पूरा होने से एक साल पहले ही लोकसभा को भंग कर दिया. जिसके चलते लोकसभा के चुनाव तय 1972 के बजाय 1971 में हुए और इसी के साथ लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों की तारीखें हमेशा के लिए एक साथ पड़नी बंद हो गईं