नीमच। शब्दों की पहुंच कानों तक होती हैं ।रूप की पहुंच आंखों तक होती है। स्नेह की पहुंच हृदय तक होती है लेकिन गुणों की पहुंच आत्मा तक होती है ।परमात्मा तक पहुंचना है तो गुणों की पहुंच को बढ़ाओ। गुणी के गुणों को आत्मसात करने की चेष्टा हर समय करते रहना चाहिए।धर्म संस्कार के गुण ही आत्मा को परमात्मा तक पहुंचाते हैं।
यह बात जैन दिवाकरीय श्रमण संघीय, पूज्य प्रवर्तक, कविरत्न श्री विजयमुनिजी म. सा. ने कही। वे श्री वर्धमान जैन स्थानकवासी श्रावक संघ के तत्वावधान में गांधी वाटिका के सामने जैन दिवाकर भवन में आयोजित चातुर्मास धर्म सभा में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि परमात्मा तक केवल गुण ही पहुंचा सकते हैं। बाकी संसार की कोई वस्तु अथवा व्यक्ति हमें आत्मा और परमात्मा से नहीं मिला सकते हैं। इसलिए हर व्यक्ति का लक्ष्य गुणवान बनने का होना चाहिए। गुणवान ही महान और फिर भगवान बनते हैं।गुणवान बनने के दो तरीके हैं पहला गुणानुराग पैदा करनाऔर दूसरा गुण दृष्टि रखना गुणी व्यक्ति जब दिखाई दे तब उसके प्रति विनम्र बनो और गुणों को आत्मसात करने की चेष्टा करो क्योंकि चेष्टा ही व्यक्ति को गुणवान बनती है।भजन और प्रवचन केवल संकेत है ।यदि इन संकेतों को नहीं समझेंगे तो भजन और प्रवचन भी जीवन में कोई बदलाव लाने वाले नहीं है। पड़ोसी धर्म का निर्वहन सद्भाव के साथ निभाना चाहिए मित्र परिवारजन या रिश्तेदार पर जब भी संकट आए उस समय जो व्यक्ति साथ देता है वही सच्चा हितेषी मानव होता है। साधु जीवन में सहनशीलता का संदेश मिलता है।संतो के जो श्रेष्ठ गुण हो उसे हमें जीवन में आत्मसात कर आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।माता-पिता के चरणों में सेवा करना चाहिए पड़ोसी से प्रेम सद्भाव पूर्वक रहना चाहिए।किसी के शोक में संवेदना व्यक्त करना चाहिए और सत्संग में सदैव सहभागी बनना चाहिए तभी हमारे जीवन के कल्याण का मार्ग मिल सकता है।शास्त्रों के स्वाध्याय का आनंद ले तो पाप कर्मों की निर्जरा हो सकती है। आत्मा का कल्याण करना है तो स्वाध्याय करना चाहिए। आत्मा का गुण कैसे प्राप्त करते हैं आत्मा का चिंतन करना चाहिए। अतिथि देवो की परंपरा का निर्वहन करना चाहिए और अतिथि का आदर सत्कार करना चाहिए।चरित्र से नियंत्रित होता है तपस्या से आत्म शोध होता है पाप कर्मों की निर्जरा होती है।महावीर स्वामी की अंतिम देशना उत्तराधययन सूत्र के 27 में अध्ययन में चरित्र नियंत्रण तथा संयम जीवन अनुशासन का संस्कार बताया गया है तथा 28वें अध्याय में 10 रुचि का उल्लेख किया गया है। साध्वी डॉक्टर विजय सुमन श्री जी महाराज साहब ने कहा किअहम से अरहम भाव की ओर जाना है तो विवेक विनय का जीवन में आत्मसात करना चाहिए ।योग्य पुत्र को ही सिंहासन सोपा जाता है।धन शक्ति बुद्धि का अभिमान नहीं करना चाहिए कुछ लोग दूसरों को पूछ कर करते हैं वे भी जीवन में सफल हो जाते हैं रावण ने अहंकार किया था इसीलिए उसका नाश हुआ।अहंकार हमें परेशान करता है इससे हमें बचाना चाहिए पैसा ऐसा वैसा ही व्यक्ति के विकास को रोकता है।हम कर रहे हैं या कोई दूसरा कर रहा है अच्छा कार्य होता है तो व्यक्ति स्वयं श्रेय लेने लगता है बिगड़ जाता है तो दूसरों ने किया है कहता है अच्छा किया तो कहता है मैंने किया है बुरा किया तो सब करता तो भगवान है। साध्वी म .सा. ने मैंने ऊंचा भवन बना दिया ....गीत प्रस्तुत किया।
तपस्या उपवास के साथ नवकार महामंत्र भक्तामर पाठ वाचन ,शांति जाप एवं तप की आराधना भी हुई।इस अवसर पर विभिन्न धार्मिक तपस्या पूर्ण होने पर सभी ने सामूहिक अनुमोदना की।
धर्म सभा में उपप्रवर्तक श्री चन्द्रेशमुनिजी म. सा, अभिजीतमुनिजी म. सा., अरिहंतमुनिजी म. सा., ठाणा 4 व अरिहंत आराधिका तपस्विनी श्री विजया श्रीजी म. सा. आदि ठाणा का सानिध्य मिला। चातुर्मासिक मंगल धर्मसभा में सैकड़ों समाज जनों ने बड़ी संख्या में उत्साह के साथ भाग लिया और संत दर्शन कर आशीर्वाद ग्रहण किया।