सिंगोली। समर्पण के बिना चाहे लौकिक जीवन हो या अध्यात्मिक जीवन कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। देव- शास्त्र-गुरु के प्रति समर्पण करने पर ही कल्याण का मार्ग प्राप्त होता है। जैसा समर्पण करते हैं, वैसा ही प्राप्त होता है। समर्पण के बिना गुरु से ज्ञान प्राप्त नही होता है। यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षित व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज से दिक्षित मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 27 जुलाई गुरुवार को प्रातः काल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।
मुनिश्री सुप्रभ सागर जी ने कहा कि अन्तरङ्ग में शान्ति की प्राप्ति के लिए देव के चरणों में समर्पण करना होगा। बाहर की क्रिया अन्तरंग के परिणामों के लिए निमित्त बनती है। बाहर में भगवान की शान्तिधारा करते हैं, तो उसका प्रभाव अन्तरंग के परिणामों पर पडता है, और परिणामों में शान्ति आ जाती है। भगवान के चरण सान्निध्य में जितनी देर बैठते है, उसने देर क्रोधादि कषायों के हिंसादि पापों के परिणामों से बच जाती है, जो हमारे लिए परिणामों की शान्ति और विशुद्धि में कारण बनती है। कुछ लोग बाहरी क्रिया को क्रिया काण्ड कहकर गौण करना चाहते हैं, उन्हें अभी कारण-कार्य की व्यवस्था का सही ज्ञान नहीं है। यदि उन्हें सही ज्ञान होता तो वे कभी भी बाहरी क्रिया को गौण नहीं करते। आत्मतत्व की प्राप्ति का उपाय अन्तरंग में डूबना है, परन्तु बाहरी पदार्थों से अगल हुए बिना अन्तरंग में डूबना संभव नहीं है। परमात्म पद को प्राप्त करने का यही उपाय है। आचार्यों ने बाहरी साधनों को अन्तरंग सिद्धि का साधन कहा है।
वहीं मुनिश्री दर्शितसागर जी महाराज ने कहा कि वर्तमान में धन और काम को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। धन कमाने के लिए घर-परिवार-नगर-देश और धर्म का त्यागकर लोग दूर देशों में जाकर बस रहे है और वहाँ के रहने वाले इन दोनों से दूर शान्ति और अध्यात्म की खोज में भारत का रुख कर रहे है। यहाँ का अध्यात्म दर्शन उन्हें बाहरी शारीरिक सुख से दूर कर आत्मिक सुख का मार्ग बता रहा है। विदेशों के लोग धन और काम को छोड़ धर्म और राम की ओर अपना कदम बढ़ा रहे है। वे भारतीय संस्कृति को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना रहे है और उसके अनुरूप जीवन जीकर शान्ति और सुख का अनुभव कर रहे है। अध्यात्म भारतीय संस्कृति का प्राण है। यदि अध्यात्म को निकाल दे तो भारतीय संस्कृति प्राण हीन हो जाएगी।