उदयपुर। मेनार गांव में कल रात को दस बजने के बाद गांव में तोपें और बंदूकें आग उगलती रही। बारूद की होली खेलने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। बारूद के धमाकों से मेनार गांव गूंज उठा। आभास युद्ध जैसा हो रहा था लेकिन ये बारूद की होली थी।
होली के बाद जमराबीज पर आज मेनार गांव में ये अनूठी खेली जा रही है। उदयपुर से करीब 45 किलोमीटर दूर उदयपुर-चित्तौड़गढ़ नेशनल हाइवे पर मेनार गांव में सुबह से ही इसकी अंतिम तैयारियां हुई और शाम बाद तो यहां पर बाहर से लोगों का आना शुरू हो गया। गांव के ओंकारेश्वर चौक पर रात को युद्ध का परिदृश्य जीवंत हो उठा जब बारूद की होली का आगाज हुआ और तोपे और बंदूकें आग उगलती रही।
गांव के लोग पारंपरिक वेशभूषा धोती, कुर्ता, कसुमल पगड़ी पहने थे। रात को ग्रामीण अलग-अलग रास्तों से ललकारते हुए बंदूक और तलवार लेकर बंदूक दागते हुए सेना के आक्रमण किए जाने के रूप मे चारभुजा मंदिर के सामने गांव के ओंकारेश्वर चौक पहुंचे।
वहां ग्रामीणों ने बंदूक और तोप से गोले दागे। आतिशबाजी से आग की लपटें निकली जो काफ़ी ऊंचाई तक जा रही थी, तोपो, बंदूकों की गर्जना 5 किलोमीटर दूर तक सुनाई दे रही थी।
आज दोपहर में शाही लाल जाजम बिछी, जिस पर अमल कसुमे की रस्म हुई, इसमें 52 गांवो से मेनारिया ब्राम्हण के पंच-मौतबीर इसके साक्षी बने। वही ढोल बजते रहे। शाम से गांव में लोगों के आने का क्रम शुरू हो गया है। ओंकारेश्वर चौक जहां आयोजन होना है वहां पर भी पूरी रोशनी और सजावट की गई है।
वहीं इस गांव के युवा जो दुबई, सिंगापुर, लंदन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में रहते हैं वे भी इस खास दिन के लिए गांव आए हुए है। पूरा गांव सतरंगी रोशनी से सजा धजा है। यह नजारा देखने के लिए उदयपुर, चित्तौड़गढ़ से लेकर आसपास के जिलों के साथ मध्यप्रदेश से भी लोग आए।
मुगलों की सेना को शिकस्त देने के उत्साह में पिछले 400 साल से मेनार में गोला-बारूद की होली खेली जाती है। इतिहासकारों के अनुसार पिछले करीब 400 साल से इस परंपरा का निर्वहन जारी है। दरअसल मुगलों की सेना को इस इलाके के रणबांकुरों ने अपने शौर्य और पराक्रम के बल पर शिकस्त दी थी, उसी खुशी में जमराबीज के दिन यहां की अनूठी होली मनाई जाती है।
जानिए इस होली के इतिहास को
जब मेवाड़ पर महाराणा अमर सिंह का राज्य था। उस समय मेवाड़ की पावन धरा पर जगह जगह मुगलों की छावनिया (सेना की टुकडिया) पड़ी हुई थी। इसी तरह मेनार में भी गाँव के पूर्व दिशा में मुगलों ने अपनी छावनी बना रखी थी। इन छावनियों के आतंक से लोग दुरूखी थे। मेनारिया ब्राह्मण भी मुग़ल छावनी के आतंक से त्रस्त हो चुके। उस समय जब मेनारवासियों को वल्लभनगर छावनी पर विजय का समाचार मिला तो गावं के वीरों ने ओंकारेश्वर चबूतरे पर इकट्ठे हुए और युद्ध की योजना बनाई गई। उस समय गांव छोटा और छावनी बड़ी थी।
समय की नजाकत को ध्यान में रखते हुए कूटनीति से काम लिया। इस कूटनीति के तहत होली का त्यौहार छावनी वालो के साथ मनाना तय हुआ। होली और धुलंडी साथ साथ मनाई गई। चेत्र माघ कृष्ण पक्ष द्वितीय विक्रम संवंत 1657 की रात्रि को राजवादी गैर का आयोजन किया गया गैर देखने के लिए छावनी वालो को आमंत्रित किया गया।
ढोल ओंकारेश्वर चबूतरे पर बजाया गया। नंगी तलवारों, ढालो तथा हेनियो की सहायता से गैर खेलनी शुरू हुई। अचानक ढोल की आवाज ने रणभेरी का रूप ले लिया। गांव के वीर छावनी के सैनिको पर टूट पड़े। रात भर युद्ध चला। ओंकार माराज के चबूतरे से शुरु हुई लड़ाई छावनी तक पहुुंच गई और मुगलों को मार गिराया और मेवाड़ को मुगलो के आतंक से बचाया। आज मेनार में उसी याद में शौर्य और वीरता पर्व मनाया जाता है।