नीमच। हड़ताल, सामूहिक अवकाश, प्रदर्शन, धरना और ज्ञापन आदि शब्द आजकल प्रदेश में लगातार सुनने को आ रहे है। मध्यप्रदेश का हर कर्मचारी संगठन अपनी मांगों को मनवाने के लिए लगातार प्रयासरत है। क्योंकि ये 2023 वर्ष, चुनावी वर्ष है। जिसके कारण संगठन के बैनर तले कर्मचारी सत्ता पक्ष पर दबाव डालने की कोशिश कर रहा है।
07 दिसम्बर 1993 से लगाकर 08 दिसम्बर 2003 तक मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही और दिग्विजय सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। प्रथम बार की सरकार में तो सबकुछ सही चला लेकिन दिग्विजय सिंह के दूसरे कार्यकाल में जहां बिजली, पानी और सड़क की समस्या ज्यादा देखी गई तो उससे भी ज्यादा प्रदेश का कर्मचारी वर्ग खासा नाराज देखा गया। 2003 के विधानसभा चुनाव में बैलेट पेपर की गिनती में जब शुरुआत के चरणों में कर्मचारियों के वोटो की गिनती हुई तो कांग्रेस का लगभग हर उम्मीदवार अपने प्रतिद्वंदी से पीछे रहा। प्रदेश के कर्मचारियों ने अपना गुस्सा उस समय वोट देकर निकाला और भाजपा की सरकार प्रदेश में बनी।
आज दोबारा वही स्थिति बनती नजर आ रही है। प्रदेश की बात की जाए तो कर्मचारियों में अपनी मांगों को लेकर काफी गुस्सा है। जब ही कर्मचारी संगठन अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते है तो उनको सीएम चौहान, सम्बंधित मंत्री या विभाग के उच्च अधिकारी द्वारा आश्वासन मिल जाता है। लेकिन उनकी मांगे पूरी नहीं होती है और स्थिति यथावत बनी रहती है।
प्रदेश के नियमित कर्मचारी या अधिकारी की मुख्य मांग पुराणी पेंशन स्कीम (ओपीएस) है। देश अटल सरकार ने 2003 के बाद नियुक्त हुए सभी कर्मचारियों की पेंशन स्कीम बंद कर दी। उसके बाद आम चुनाव के बाद मनमोहन सरकार ने इस नियम में बदलाव कर 2003 के बाद नियुक्त हुए कर्मचारियों के लिए नई पेंशन नीति लागु की। वहीं बात की जाए मध्य प्रदेश की तो यहां शिक्षा विभाग के कर्मचारी जो की 2003 के बाद नियुक्त हुए थे उन्हें एनपीएस का फायदा लेने के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ा और प्रदेश सरकार ने उन्हें 2011 के बाद एनपीएस का फायदा दिया।
बात की जाए देश कि तो गैर भाजपा शासित प्रदेशों में एनपीएस सिस्टम को हटाकर ओपीएस सिस्टम लागु कर दिया है। जिसके कारण भाजपा शासित प्रदेशों में सरकारों को कर्मचारियों का गुस्से का सामना करना पड़ रहा है। मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस चुनावी वर्ष को देखते हुए सरकार बनने पर ओपीएस सिस्टम का फायदा कर्मचारियों को देने का वादा कर चुकी है। वहीं बात की जाए संविदा कर्मचारियों की तो वे भी नियमितकरण की मांगों को लेकर लगातार आवाज उठा रहे है।
कर्मचारियों का हर वर्ग चाहे वो शिक्षा विभाग, स्वास्थ्य विभाग, विद्युत विभाग या नगरीय और ग्रामीण विभाग हो हर कर्मचारी अपने संगठन के तहत सरकार तक अपनी आवाज पहुँचाने का लगातार प्रयास कर रहा है। अब देखना है कि सरकार इनकी मांगों को लेकर क्या रुख अपनत है। क्योंकि कर्मचारी अकेला नहीं होता उसके साथ उसका परिवार और सामाजिक प्रभाव भी होता है जो समय आने पर वोट की चोट कर सकता है।